मैं नहीं जानती
अपने अंदर की
उस लड़की को
जो आहटों के गुलाब उगाया करती है
मैं नहीं जानती
अपने अंदर की
उस लड़की को
जो काफी के कबाब बनाया करती है
मैं नहीं जानती
अपने अंदर की
उस लड़की को
जो मोहब्बत के सीने पर जलता चाँद उगाया करती है
मैं नहीं जानती
अपने अंदर की
उस लड़की को
जो तुम्हारे ना होने पर तुम्हारा होना दिखाया करती है
मैं नहीं जानती
अपने अंदर की
उस लड़की को
जो काँच की पारदर्शिता पर सुनहरी धूप दिखाया करती है
मैं नहीं जानती
अपने अंदर की
उस लड़की को
जो चटक खिले रंगों से विरह के गीत बनाया करती है
मैं नहीं जानती
अपने अंदर की
उस लड़की को
जो साँझ के पाँव में भोर का तारा पहनाया करती है
मैं नहीं जानती
अपने अंदर की
उस लड़की को
जो प्रेम में इंतिहाई डूबकर खुद प्रेमी हो जाया करती है
मैं नहीं जानती
अपने अंदर की
उस लड़की को
जो खुद को मिटाकर रोज अलाव जलाया करती है
मैं नहीं जानती
अपने अंदर की
उस लड़की को
जो जलते सूरज की पीठ पर बासी रोटी बनाया करती है
नहीं जानती
नहीं जानती
नहीं जानती
सुना है तीन बार जो कह दिया जाए
वो अटल सत्य गिना जाता है ...क्या सच में नहीं जानती ?
मानोगे मेरी इस बात को सच?
हो सके तो बताना ...ओ मेरे अल्हड़ स्वप्न सलोने
जो आज भी ख्वाबों में अँगड़ाइयाँ लिया करता है बिना किसी जुंबिश के !!!
तारों में सज के अपने प्रीतम से देखो धरती चली मिलने
...गुनगुनाने को जी चाहता है मेरे अंदर की लड़की का
अब ये तुम पर है ...किसे सच मानते हो ?
जो पहले कहा या जो बाद में ...सोच और ख्याल तो अपने अपने होते हैं ना
और मैं ना सोच हूँ ना ख्याल
बस जानने को हूँ बेकरार ...क्या जानती हूँ और क्या नहीं ?
ये प्रीत के मनके इतने टेढ़े मेढ़े क्यों होते हैं मेरी जिजीविषा की तरह, मेरी प्रतीक्षा की तरह, मेरी आतुरता की तरह
वक्त मिला तो कभी जप के हम भी देखेंगे
शायद सुमिरनी का मोती बन जाएँ ...
अल्हड़ लड़की की ख्वाहिशों में
चाहतों की शराब की दो बूँद काफी है नीट पीने के लिए
जिंदगी के लिए... जिंदगी रहने तक
ओ साकी ! क्या देगा मेरी मिट चुकी आरजुओं को जिलाने के लिए अपने अमृत घट से एक जाम
फिर कभी होश में ना आने के लिए
मेरे पाँव थिरकाने के लिए, मेरे मिट जाने के लिए
क्योंकि
मैं नहीं जानती
अपने अंदर की
उस लड़की को
कि आखिर उसका आखिरी विजन क्या है...
शतरंज के खेल में शह मात देना अब मैंने भी सीख लिया है...
तुम्हारा प्रश्न
आज की आधुनिक
क्रांतिकारी स्त्री से
शिकार होने को तैयार हो ना
क्योंकि
नए-नए तरीके ईजाद करने की
कवायद शुरु कर दी है मैंने
तुम्हें अपने चंगुल मे दबोचे रखने की
क्या शिकार होने को तैयार हो तुम ...स्त्री?
तो इस बार तुम्हे जवाब जरूर मिलेगा...
हाँ, तैयार हूँ मैं भी
हर प्रतिकार का जवाब देने को
तुम्हारी आँखों में उभरे
कलुषित विचारों के जवाब देने को
क्योंकि सोच लिया है मैंने भी
दूँगी अब तुम्हे
तुम्हारी ही भाषा में जवाब
खोलूँगी वो सारे बंध
जिसमे बाँधी थी गाँठें
चोली को कसने के लिए
क्योंकि जानती हूँ
तुम्हारा ठहराव कहाँ होगा
तुम्हारा जायका कैसे बदलेगा
भित्तिचित्रों की गरिमा को सहेजना
सिर्फ मुझे ही सुशोभित करता है
मगर तुम्हारे लिए हर वो
अशोभनीय होता है जो गर
तुमने ना कहा हो
इसलिए सोच लिया है
इस बार दूँगी तुम्हे जवाब
तुम्हारी ही भाषा में
मर्यादा की हर सीमा लाँघकर
देखूँगी मै भी उसी बेशर्मी से
और कर दूँगी उजागर
तुम्हारे आँखो के परदों पर उभरी
उभारों की दास्ताँ को
क्योंकि येन केन प्रकारेण
तुम्हारा आखिरी मनोरथ तो यही है ना
चाहे कितना ही खुद को सिद्ध करने की कोशिश करो
मगर तुम पुरुष हो ना
नहीं बच सकते अपनी प्रवृत्ति से
उस दृष्टिदोष से जो सिर्फ
अंगों को भेदना ही जानती है
इसलिए इस बार दूँगी मैं भी
तुम्हे खुलकर जवाब
मगर सोच लेना
कहीं कहर तुम पर ही ना टूट पडे
क्योंकि बाँधों मे बँधे दरिया जब बाँध तोड़ते हैं
तो सैलाब मे ना गाँव बचते हैं ना शहर
क्या तैयार हो तुम नेस्तनाबूद होने के लिए
कहीं तुम्हारा पौरुषिक अहम आहत तो नही हो जाएगा
सोच लेना इस बार फिर प्रश्न करना
क्योंकि सीख लिया है मैंने भी अब
नश्तरों पर नश्तर लगाना ...तुमसे ही ओ पुरुष !
दाँवपेंच की जद्दोजहद में उलझे तुम
सँभल जाना इस बार
क्योंकि जरूरी नही होता
हर बार शिकार शिकारी ही करे
इस बार शिकारी के शिकार होने की प्रबल संभावना है
क्योंकि जानती हूँ
आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में आहत होता तुम्हारा अहम
कितना दुरूह कर रहा है तुम्हारा जीवन
रचोगे तुम नए षड्यंत्रों के प्रतिमान
खोजोगे नए ब्रह्मांड
स्थापित करने को अपना वर्चस्व
खंडित करने को प्रतिमा का सौंदर्य
मगर इस बार मै
नही छुडाऊँगी खुद को तुम्हारे चंगुल से
क्योंकि जरूरी नही
जाल तुम ही डालो और कबूतरी फँस ही जाए
क्योंकि
इस बार निशाने पर तुम हो
तुम्हारे सारे जंग लगे हथियार हैं
इसलिए रख छोड़ा है मैंने अपना ब्रह्मास्त्र
और इंतजार है तुम्हारी धधकती ज्वाला का
मगर सँभलकर
क्योंकि धधकती ज्वालाएँ आकाश को भस्मीभूत नही कर पातीं
और इस बार
तुम्हारा सारा आकाश हूँ मै ...हाँ मै, एक औरत
गर हो सके तो करना कोशिश इस बार मेरा दाह संस्कार करने की
क्योंकि मेरी बोई फसलों को काटते
सदियाँ गुजर जाएँगी
मगर तुम्हें ना धरती नजर आएगी
ये एक क्रांतिकारी आधुनिक औरत का तुमसे वादा है
शतरंज के खेल मे शह मात देना अब मैंने भी सीख लिया है
और खेल का मजा तभी आता है
जब दोनो तरफ खिलाड़ी बराबर के हों
दाँव पेंच की तिकड़में बराबर से हों
वैसे इस बार वजीर और राजा सब मै ही हूँ
कहो अब तैयार हो आखिरी बाजी को ...ओ पुरुष !!!!